अरशद नदीम
देश में आम चुनाव का बिगुल बज चुका है. सभी पार्टियां अपनी-अपनी जीत के लिए कमर कस चुकी हैं. मतदाताओं को लुभाने और ज्यादा से ज्यादा समर्थन पाने के लिए कांग्रेस द्वारा गठित ‘इंडिया’ और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व ‘वाला एनडीए’ है. जनता का समर्थन व मत का धन पाने के लिए अपने-अपने ‘विशेषज्ञों’ को मैदान में उतार चुके हैं । सड़कों और चौराहों से लेकर ट्रेनों, बसों, मेट्रो रेल और परिवहन के अन्य सार्वजनिक साधनों तक, चुनाव और उसके परिणामों के बारे में चर्चा शुरू हो गई है, लेकिन एक वर्ग अभी भी केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर सवाल और आगामी आम चुनावों की निष्पक्षता पर संदेह व्यक्त कर रहा है । देश की जनता पहले से ही ईवीएम चुनाव की विश्वसनीयता को लेकर कानाफूसी कर रही थी, अब दबे स्वर में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और देश के चुनाव को लेकर भी सरगोशी कर रही है। एक वर्ग अपनी चिंता जताते हुए यह बात भी कह रहा है की “भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) में दो रिक्तियों को भरने में, हड़बड़ी न सही लेकिन, दिखाई गई तेजी की उचित ही आलोचना हुई है। इस बहु-सदस्यीय निकाय को चुनाव आयुक्त (ईसी) अरुण गोयल के इस्तीफे के कुछ ही दिनों के भीतर दो नए सदस्य मिल गए। खुद अरुण गोयल की नियुक्ति भी भारत में चुनावों का संचालन और उसकी निगरानी करने वाले इस आयोग के सदस्यों के चयन की सही मायने में एक स्वतंत्र प्रक्रिया की व्यवस्था से संबंधित एक संविधान पीठ में चल रही सुनवाई के बीच में ही हुई थी। आलोचकों का यह कहना गलत नहीं है कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और अन्य चुनाव आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया को निर्धारित करने वाला अधिनियम संविधान पीठ के मार्च 2023 के फैसले में परिकल्पित स्वतंत्रता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता मालूम होता है। चुनाव आयुक्तों का चयन ऐसे समय में हुआ जब इस अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई होने वाली थी। इन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में, “व्यक्तिगत कारणों” से दिया गया श्री गोयल का इस्तीफा अस्पष्ट बन गया है। यह बेहद गंभीर चिंता का विषय है कि एक चुनाव आयुक्त, जिसका कार्यकाल पूरा होने में अभी कुछ साल बाकी थे, ने आयोग द्वारा लोकसभा चुनाव कार्यक्रम को अंतिम रूप देने से कुछ दिन पहले इस्तीफा देने का विकल्प चुना। कहने की जरूरत नहीं कि चुनाव आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया से जुड़ी चर्चा का दो नए चुनाव आयुक्तों सर्वश्री ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह संधू की योग्यता या उपयुक्तता से कोई लेना-देना नहीं है।“
असली समस्या उस कानून में निहित है जिसे संसद द्वारा पिछले साल सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह सवाल उठाये जाने के बाद पारित किया था कि संविधान की स्थापना के बाद से अनुच्छेद 324 के प्रावधानों के तहत आवश्यक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को निर्धारित करने वाला कोई कानून क्यों नहीं है। अदालत का जोर ईसीआई के कार्यपालिका से स्वतंत्र रहने पर था ताकि आयोग द्वारा कराये जाने वाले चुनाव वास्तव में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष हों। इस दिशा में, उसने एक ऐसी अंतरिम व्यवस्था द्वारा शून्य को भरने कोशिश की जिसके तहत प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को मिलाकर मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों को चुनने वाली एक चयन समिति का गठन हुआ। हालांकि, यह व्यवस्था तभी तक लागू रहनी थी जब तक कि संसद इस संबंध में एक कानून न बना दे। इसी संदर्भ में, सरकार ने एक कानून बनाया जिसके तहत विपक्ष के नेता या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता केअलावा प्रधानमंत्री और कोई एक केंद्रीय मंत्री को शामिल करते हुए एक समिति का गठन किया गया। अब अदालत के सामने सवाल यह है कि क्या एक ऐसी समिति, जिसमें कार्यपालिका के पक्ष में दो-एक का बहुमत है, सही मायने में स्वतंत्र प्राधिकारी हो सकती है। यह तर्क आकर्षक तो है कि प्रधानमंत्री हमेशा मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों का चयन करते रहे हैं, लेकिन अंततः एक कार्यपालिका-संचालित प्रक्रिया को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के वास्ते एक स्वतंत्र निकाय के संवैधानिक सिद्धांत में निहित एक अन्य तर्क के सामने झुकना ही होगा, भले ही एक संस्थागत प्रमुख के रूप में सीजेआई उस चयन प्रक्रिया का हिस्सा बनने के सबसे उपयुक्त व्यक्ति न हों।
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